YDMS चर्चा समूह

Wednesday, December 7, 2011

शर्मनिरपेक्ष मीडिया व सरकार की सांठ -गांठ का एक ही तोड़ --युगदर्पण


शर्मनिरपेक्ष मीडिया व सरकार की सांठ -गांठ का एक ही तोड़ --युगदर्पण.-तिलक संपादक युगदर्पण.... 
sharm nirpeksh media v sarkar ki santh ganth ka ek hi tod- Tilak Editor Yug Darpan-9911111611.
गूगल-भारत का अपनी सामग्री नीति पर स्पष्टीकरण (हिंदी अनुवाद) 
raashtradarpan.wordpress.com/2011/12/06/

Saturday, November 19, 2011

हमारे अन्य सूत्र (लिंक)

दूरदर्पणग्रन्थ ज्ञान दर्पणदेश समाज दर्पणजीवन रस दर्पण, 4 youtube चेनल, फेसबुक व 4 समूह, आर्कुट व 7 समुदाय तथा रेडिफ व ट्विटर के लिंक हेतु : 

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http://raashtradarpan.wordpress.com/
*स्वप्नों का भारतमहाराणा प्रताप ; लेखक पत्रकार राष्ट्रीय मंचदेशका चौकीदार कहे- देश भक्तो, जागते रहो-(भारत और इंडिया के भावात्मक अंतर सहित)My friends dedicated to Bharatयुगदर्पण मित्र मंडलराधे कृष्ण - भूले बिसरे भजन.
http://www.google.com/transliterate/indic

Friday, November 4, 2011

युगदर्पण के 10 हजारी होने पर आप सभी को हार्दिक बधाई व धन्यवाद.

युगदर्पण के 10 हजारी होने पर आप सभी को हार्दिक बधाई व धन्यवाद. युग दर्पण ब्लाग पर 49 देशों के ३६४०, तथा राष्ट्र दर्पण पर ३३ देशों के १६९३, लोगों ने विगत १ १/२ वर्षों में बने हमारे ब्लाग को १० हज़ार बार खोला है पत्रकारिता व्यवसाय नहीं एक मिशन है-युगदर्पण

Tuesday, April 12, 2011

श्री राम नवमी की कोटि कोटि हिदू समाज सहित आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.....


श्री राम नवमी की कोटि कोटि हिदू समाज सहित आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं.....
तिलक राज रेलन,  संपादक युग दर्पण , 09911111611

Monday, April 4, 2011

नव संवत 2068 की शुभकामनाएं।


अंग्रेजी का नव वर्ष भले हो मनाया,

उमंग उत्साह चाहे हो जितना दिखाया;
विक्रमी संवत बढ़ चढ़ के मनाएं,
चैत्र के नवरात्रे जब जब आयें
घर घर सजाएँ उमंग के दीपक जलाएं;
खुशियों से ब्रहमांड तक को महकाएं
यह केवल एक कैलेंडर नहीं, प्रकृति से सम्बन्ध है;
इसी दिन हुआ सृष्टि का आरंभ है 
तदनुसार 4 अप्रैल 2011, इस धरा की 1955885112वीं वर्षगांठ तथा इसी दिन सृष्टि का शुभारंभ हुआ.आज के दिन का महात्य -

1.भगवन राम का राज्याभिषेक. 2.युधिस्ठिर संबत की शुरूवात.3 .बिक्रमादित्य का दिग्विजय. 4.बासंतिक नवरात्र की शुरूवात.5 .शिवाजी महाराज की राज्याभिषेक.6 .राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवर जी का जन्मदिन. 
ईश्वर हम सबको ऐसी इच्छा शक्ति प्रदान करे जिससे हम अखंड माँ भारती को जगदम्बा का स्वरुप प्रदान करे, धरती मां पर छाये वैश्विक ताप रुपी दानव को परास्त करे... और सनातन धर्म का कल्याण हो..
युगदर्पण परिवार की ओर से अखिल विश्व में फैले हिन्दू समाज सहित,चरअचर सभी के लिए गुडी पडवा, उगादी,
नव संवत 2068 की शुभकामनाएं
जय भबानी ,जय श्री राम,भारत माता की जय.
विश्व कप ने संकेत दिया है नव संवत भारत के लिए सुखद, मंगलकारी होगा 
तिलक संपादक युगदर्पण. .
(निस्संकोच ब्लॉग पर टिप्पणी/अनुसरण/निशुल्क सदस्यता व yugdarpanh पर इमेल/चैट करें संपर्कसूत्र-09911111611,9911145678,9540007993. www.deshkimitti.feedcluster.com/ http://www.deshkimitti.blogspot.com/

Monday, January 17, 2011

टीवी और पेज थ्री को बाहर करें !! विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (‘से. नी’),

टीवी और पेज थ्री को बाहर तो नहीं कर सकते। माना कि टीवी और पेज थ्री में बहुत बुराइयां हैं, ( ‘पर कितनी मीठी’ हैं,) किन्तु अच्छाइयां भी तो हैं। ‘सार सार गहि लेय, थोथा देय उड़ाय।’ और आप उसे घर के बाहर करने को कह रहे हैं; हैं न आप दकियानूसी!!


कितने व्यक्ति सार ग्रहण कर सकते हैं? क्या यह व्यावहारिक भी है? सार और थोथा में अन्तर करना कभी भी सरल नहीं रहा, आज तो टीवी तथा पेज थ्री ने इसे असंभव कर दिया है, विरले ही इसके चंगुल से बच सकते हैं! टीवी और पेज थ्री ने तो दूसरों के शयनकक्ष और सड़क के मजमें आदि सारे 'बाहर' को घर के मिलन कक्ष में ला दिया है। और यदि गहराई से सोचें तब 'इच्छा स्वातंत्र्य' (फ़्री विल) नामक मानवीय क्षमता तो बची नहीं है, क्योंकि प्रौद्योगिकी के दैत्य 'प्रौद्योगिकी निर्धार्यवाद' (डिटरमिनिज़म) जिसका 'ब्रान्ड एम्बैसैडर' इंटरनैट है और 'ब्रान्ड एम्बैसड्रैस' - वास्तव में 'टैम्प्ट्रैस' - टीवी है, ने हमारी सोच और मानसिकता पर कब्जा कर लिया है, बस अंतर इतना ही है कि हमें लगता है कि हम स्वतंत्र हैं। हम वही देखते हैं जो टीवी और पेज थ्री दिखलाना चाहता है ( चाहे आप कितनी‌ भी सर्फ़िंग कर लें), हम खरीदते वही हैं जो वह हमें बेचना चाहता है!!


यह युग न केवल विज्ञान प्रौद्योगिकी का है वरन जानकारी का भी युग है, जिसके बिना हम आज के समृद्ध, गतिशील तथा दीर्घ जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। यू एस, ब्रिटेन आदि पश्चिम देश प्रौधोगिकी संस्कृति के आधार पर भौतिक प्रगति और समृद्धि के चरम पर हैं, जाने अनजाने हम भी उनके पथ पर ही चल रहे हैं। यदि हम केवल विज्ञान प्रौद्योगिकी में पश्चिम का अनुकरण कर रहे होते तब तो ठीक था, किन्तु हम तो उनकी नकल रंग रूप से लेकर भाषा, भोजन, भूषण, भजन और भोग तक में कर रहे हैं! सभी गोरे होना चाहते हैं, सभी मातापिता चाहते हैं कि उनका बच्चा पैदा होते ही अंग्रेजी बोलने लगे, सभी बच्चे, कोला और नूडल्स की तो बात ही छोड़े, मैकडॉन्ल्ड, पीज्जा हट, पर रोज मत्था टेकना चाहते हैं। यू एस जाने का स्वप्न तो सभी किशोर देखते हैं।’ तकनीकी की उच्चशिक्षा यू एस में लेना प्रशंसनीय कार्य है, किन्तु उनके जीवन मूल्य बिना सोचे विचारे लेना गुलामी की निशानी है। यू एस ए आज पूरी कोशिश कर रहा है कि वह अपनी संस्कृति हम पर थोप दे, ताकि वह हमारा शोषण आसानी से कर सके और हमारे कर्णधार तो उनसे भी आगे चल रहे हैं। उऩ्होंने अंग्रेज़ी को नौकरी या कहें रोजी रोटी के लिये अनिवार्य कर दिया है। 'नंगा भूखा', दोनों अर्थों में - शारीरिक तथा बौद्धिक – हिन्दुस्तानी बिचारा लाचार है, इस जनतंत्र में।


यह भी स्पष्ट है कि इस नवीन प्रगति तथा समृद्धि के साथ ही नई नई बीमारियां पैदा हो रही हैं, वीभत्स तथा नए अपराध तेजी से बढ़ रहे हैं, प्रदूषण से प्रलय का संकट निकट आ रहा है। परिवार खंडित हो रहे हैं, दुख बढ़ रहे हैं। आज यू एस ए तथा ब्रिटेन जैसे अत्याधुनिक तथा अति समृद्ध देशों में अनव्याही या एकल माताओं की समस्या इतनी गंभीर है कि उन्हें कोई समाधान नहीं सूझ रहा है। समाधान के लिये पहले यौन शिक्षा को कॉलैज, फिर विधालयों तक लाया गया। किन्तु इसके फ़लस्वरूप वे और कम उम्र में ही अनव्याही या एकल माताएं बनने1 लगीं। अब वहां यौन शिक्षा को प्राथमिक विद्यालय2 में दिये जाने पर विचार हो रहा है! ब्रिटैन में एक और गम्भीर समस्या3 पैदा हो गई है -‘किशोरों का अत्यधिक मदिरापान’, जिसके फलस्वरूप सैकड़ों की संख्या में उन्हें अस्पतालों में भरती होना पड़ता है। इसका हल उनके पास यही निकला कि शराब को महंगा किया जाए! जब शराब को ग्लैमराइज किया जाता है, और बच्चों पर नियंत्रण कम किया जा रहा हो तब ऐसा ही होगा।


क्या इस दुखद परिस्थिति के लिये आधुनिक प्रौद्योगिकी जिम्मेदार है? क्या भोगवाद प्रौद्योगिकी द्वारा दी जा रही अफीम है? क्या प्रौद्योगिकी जनतंत्र को बाईपास करती है? क्या प्रौद्योगिकी और ‘ग्लोबल विलैज’ पश्चिम का नवउपनिवेश स्थापित करने के लिये नवीन परिष्कृत आयुध है? क्या प्रौद्योगिकी जीवन की संस्कृति पर प्रभाव डालती है? क्या प्रौद्योगिकी मानवीय हो सकती है? हम सारे प्रभावों को देखते हुए भी इस समस्या को छोड देते हैं। आइये इस पर थोड़ा विचार करें।


प्रौद्योगिक संस्कृति क्या है?

मानव ही ऐसा जीव है जिसे जीवन जीने के लिये लम्बे संस्कार अनिवार्य है। सरलीकृत तथा मोटे तौर पर कहें तब प्रौ. संस्कृति अपने विशिष्ट उत्पादों के द्वारा सामाजिक जीवन की भौतिक आवश्यकताएं पूरी करती है, जीवन को आरामदेह तथा सुविधाजनक बनाती है; और वह जीवन की मूल संस्कृति पर आधारित होती है तथा उसे प्रभावित भी कर अपने अनुकूल बदलती भी है। जब कि मूल या सामाजिक संस्कृति जीवन के मूल्य और दिशा निर्धारित करती है, किन्तु यह अपना प्रभाव डालने के लिये लम्बा समय तथा जीवन्त संस्कृति की माँग करती है। मेरी समझ में प्रौद्योगिक संस्कृति ऐसी होना चाहिये कि, ‘भौतिक जीवन में सुविधाओं, जीवन की समस्याओं के समाधान तथा जीवन के उत्थान हेतु प्रौद्योगिक उत्पादन की दक्षता, गुणवत्ता, समाधान की प्रवृत्ति, नवीनीकरण, वचनबद्धता, समयबद्धता और उपादेयता यथासंभव उंची रहे; पर्यावरण को प्रदूशित तथा नष्ट न करे। इसके साथ ही सुखी जीवन के लिये यह भी आवश्यक है कि हमारी संस्कृति की पकड़ हमारे अन्दर इतनी हो कि प्रौद्योगिक संस्कृति हमारी वैचारिक शक्ति तथा जीवन मूल्यों पर हावी न हो, और समृद्धि टिकाउ हो; वह हमें सत्याभासी दुनिया में ‘टेलीपोर्ट’ न कर सके, हमारी मानवीय अस्मिता को नष्ट या भ्रष्ट न कर सके।’


प्रौद्योगिक संस्कृति और मूल संस्कृति का संबन्धः

भारत में प्रौद्योगिक संस्कृति तो ऐतिहासिक दृष्टि से नई नवेली बहू है जो अपने नैहर से अपनी मूल भोगवादी संस्कृति लेकर आई है, और त्यागमय भोग वाली भारतीय संस्कृति को अस्वीकार कर रही है। इसके फ़लस्वरूप हमारी दैनिक जीवन की व्यावहारिक संस्कृति गड्डमड्ड हो रही है। भारतीय संदर्भ में सामान्य सा उदाहरण लें, हमारी प्रौद्योगिकी ऐसी क्यों कि जरा सी तेज हवा चली कि बिजली गुल, एक बारिश आई कि सड़क में गढ्ढे, और टेलिफोन डैड, गर्मी आई कि नल सूखे, और पानी आया भी तो जहरीला? पश्चिम को आदर्श मानने वाले भारत में ऐसा पचासों बरसों से हो रहा है, जब कि वहां से हमने प्रौद्योगिक ली, और शिक्षा4 भी उनकी भाषा में ही ली। वहां ऐसा नहीं हो रहा है, तब हमारे यहां ऐसी समस्याएं क्यों? क्या इसमें हमारी संस्कृति का दोष है, व्याप्त भ्रष्टाचार का दोष है?


एक कारण तो यह है कि हमने प्रौद्योगिकी का बौद्धिक ज्ञान अंग्रेज़ी में प्राप्त किया, जो विदेशी भाषा में होने के कारण हम उसे ह्दयंगम नहीं कर पाए। वह ज्ञान मस्तिष्क के एक स्वतंत्र खंड में पड़ा रहता है क्योंकि सिवाय कार्यालय के उसका शेष जीवन से सीधा संबन्ध नहीं है। जब एक वैज्ञानिक या अभियांत्रिक कविता लिखता है तब वह, अधिकांशतया, अपने विज्ञान या अभियांत्रिक के अनुभव उनमें क्यों नहीं डालता? क्योंकि तत्संबन्धी ज्ञान वह आत्मसात नहीं कर पाया है। पश्चिम की कार्यनिष्ठा की संस्कृति भी वह सीख नहीं पाता क्योंकि वह तो वहां के जीवन में रहने से आती, और नकल करने से तो अधकचरी संस्कृति ही आएगी। स्वातंत्र्य आन्दोलन काल को छोड़कर हमारे जीवन में भ्रष्टाचार की अति अनेक सदियों से तो है, क्योंकि गुलामी के कारण हमारी अपनी संस्कृति की पकड़ बहुत कमजोर हो गई है। ऐसा विदेशी विद्वान भी मानते हैं कि बारहवीं शदी तक भारत विज्ञान प्रौद्योगिकी में सर्वश्रेष्ठ था और समृद्धि में भी। आज जैसे घोर भ्रष्टाचार में ऐसी समृद्धि टिकाउ नहीं हो सकती। यह सारी बातें कहने का तात्पर्य यह कि इस विदेशी प्रौद्योगिक संस्कृति का हमारी मूल संस्कृति के साथ सामंजस्य होना चाहिये, और हमारी मूल संस्कृति में आधुनिक समाज को जीवन्त बनाने की क्षमता है, अतः हम उस पर चलें, नकि पश्चिम की नकल करें।

प्रौद्योगिक संस्कृति को आधार की आवश्यकता होती है कि जिस पर खड़े हो सकने के लिये उसका मूल संस्कृति से सामंजस्य भी होना चाहिये। यह सामन्जस्य नहीं‌हो रहा है, वरन एक गड्ड मड्ड संस्कृति पनप रही है, जो खतरनाक है। एक तो हमारी अपनी संस्कृति पर पकड़ कमजोर होने के कारण है और दूसरे दोनों मूल संस्कृतियों (पूर्व तथा भारतीय) में जमीन आसमान का अंतर होने के कारण भी है। कोला को हम पर हावी होने में पच्चीस वर्षों से भी अधिक लगे हैं क्योंकि यह विलम्ब हमारे पारम्परिक पेयों की श्रेष्ठता पर विश्वास होने तथा पेय तैयार करने की असुविधा को असुविधा न मानने वाली संस्कृति के बल पर हुआ है। यह कोला करोड़ों का नुकसान उठाकर स्वयं ही भाग गई होती यदि हमारी अपनी संस्कृति पर पकड़ बनी रही होती। अब चूंकि हमें पश्चिमी संस्कृति श्रेष्ठ लगती है हम उसका अंधानुकरण कर रहे हैं, और कोला पश्चिमी प्रौद्योगिक संस्कृति का उत्पाद है, प्रतीक है। वैज्ञानिकों द्वारा चेतावनी के बाद भी कि सादे पानी के समान ही इसमें कीटनाशक विष तो हैं ही, इसमें अन्य जहर भी है और चीनी की मात्रा भी हानिकारक है, जो मोटापा बढ़ाती है और मधुमेह तथा अन्य बीमारियों को आमंत्रण देती है। हम बिकाउ एक्टर्स या खिलाड़ियों का कहना मानकर इस घातक कोला का पान सहर्ष, खूब और गौरव के साथ कर रहे हैं। तात्पर्य यह है कि यदि हम अपनी संस्कृति को भूल रहे हैं तब पश्चिम की प्रौद्योगिकी पश्चिमी संस्कृति लाएगी। यह विचारणीय है कि इस विकसित पश्चिमी संस्कृति लाने से हमें जो लाभ होंगे, क्या वे उसकी नकल किये बिना नहीं आ सकते, और जो नुकसान होंगे क्या वे लाभ की अपेक्षा कम होंगे?

हमारी संस्कृति त्यागमय भोग, अर्थात भोग के लिये भोग नहीं वरन मात्र आवश्यक भोग, पर आधारित है, और पश्चिमी संस्कृति भोगवाद, अर्थात जीवन का ध्येय ही‌ अधिकतम भोग पर आधारित है। आज की प्रौद्योगिकी भोगवाद के साधनों में और उन्हें भोगने की इच्छाओं में निरंतर वृद्धि कर रही है। अतएव उसमें जो वृद्धजन बाधक होंगे वे तो अनुपयोगी तथा अनावश्यक भार माने ही जाएंगे। एक षड़यंत्र के तहत जरा सा बहाना मिलने पर बच्चों पर से माता पिता तथा शिक्षक का नियंत्रण उठाया जा रहा है और बच्चे भटक रहे हैं और भोग में लिप्त हो रहे हैं। प्रदूषित वातावरण तथा समस्याग्रस्त समाज से पीड़ित इन समुन्नत देशों के कुछ चिंतकों को अब लग रहा है कि उन्होंने तो भस्मासुर को वरदान दे दिया है। बढ़ती हुई हिन्सा और अपराध, वृद्धों की उपेक्षा5, स्त्रियों का शोषण, बलात्कार6 और अनव्याही या एकल माताओं7 का मार्मिक दुख भोगवादी संस्कृति के प्रमुख दुष्परिणाम हैं। क्या हमें ऐसी प्रौद्योगिक संस्कृति चाहिये?

आधुनिक प्रौद्योगिकी द्वारा इच्छाओं का बहुल उत्पादन:

जब तक प्रौद्योगिकी हमारी आवश्यक इच्छाएं पूरी कर रही थी, आवश्यकता आविष्कार की जननी थी, समाज का प्रौद्योगिक संस्कृति पर नियंत्रण था। किन्तु भोगवादी प्रौद्योगिकी अब तो प्रकृति को इतना प्रदूषित कर रही है कि प्रलय अवश्यंभावी है। यू एस ए जैसे भोगवादी देश स्थिति को सुधारने के लिये, जैस कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिये, तैयार नहीं हैं, वरन वे अन्य देशों से सुधरने की अपेक्षा रखते हैं, क्योंकि वे अपने भोग की मात्रा को निरंतर बढाने में ही सुख, समृद्धि तथा प्रगति देखते हैं। उनकी आर्थिक व्यवस्था भोगवादी वस्तुओं के असंख्य उत्पाद तथा बाजार पर टिकी है। इच्छाएं यदि सीमित हो गई तब उत्पादन भी सीमित होगा, और आर्थिक प्रगति भी। अतः उन्होने सोचा कि लोगों में असीम इच्छाएं पैदा की जाएं, अर्थात आवश्यकता को आविष्कार की जननी न मानकर, आविष्कारों को आवश्यकता की जननी बनाया जाए। आज प्रौद्योगिकी मजे से अनंत इच्छाएं पैदा कर रही है। अब गालिब के साथ हर आदमी गा रहा है, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पै दम निकले। बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।’ विडम्बना यह कि इस आधुनिक प्रौद्योगिकी का ध्येय वास्तव में हमारे सुख समृद्धि की वृद्धि न होकर हमारे धन को लूटना होता है; हमारी इच्छापूर्ति तो बहाना है। जब आविष्कार आवश्यकता के जनक हो जाते हैं, तब समाज पर नियंत्रण प्रौद्योगिकी का और उद्योगपतियों का हो जाता है जोकि मानवता के लिये खतरनाक है।


क्या प्रौद्योगिकी नैतिक रूप से तटस्थ है ?

इसमें टी वी या पेज थ्री या उस प्रौद्योगिकी का भी क्या दोष! वस्तुएं या टीवी - पेजथ्री के कार्यक्रम तो मनुष्य मनुष्य के लिये बनाता है। लेज़र से आप चाहें तो आंख की सूक्ष्मतम शल्य चिकित्सा करा लें या महाविध्वंसकारी लेजर तोप बना लें, यह तो आप पर निर्भर है, प्रौद्योगिकी का इसमें क्या दोष !! इस तर्क से आप यह नहीं सिद्ध कर सकते कि आधुनिक प्रौद्योगिकी नैतिक रूप से तटस्थ है। भोगवाद पर सवार आधुनिक प्रौद्योगिक संस्कृति के पास अनंत इच्छाओं को पैदा करने वाली एके 47 (टीवी तथा पेज थ्री) है जिसके दम पर वह हमसे कोई भी काम मजे से करवा सकती है, अतः वह न केवल नैतिक रूप से तटस्थ नहीं है, वरन 'दुष्ट' है!!

प्रौद्योगिकी के निर्माण में समाज का प्रभाव अवश्य होता है, किन्तु प्रौद्योगिकी भी समाज का नियंत्रण करती है। प्रौद्योगिकी ने आवश्यक वस्तुओं के बहुल उत्पादन से अपना कार्य प्रारंभ किया था, किन्तु अब भोगवाद प्रौद्योगिकी संस्कृति अनावश्यक वस्तुओं का भी बहुल उत्पादन कर रही है और लोगों के मनमें उनके लिये आवश्यकताएं पैदा की जा रही हैं। हरवर्ष नई कमीज या नई कार खरीदना या नये या विशिष्ट ब्रैन्ड के जूते खरीदना सिर्फ इसलिये कि वह फैशन में है, अनावश्यक इच्छाओं के नमूने हैं। सैक्सी विज्ञापन अनावश्यक वस्तुओं को आवश्यक स्थापित करते हैं। स्वयं फैशन, अत्यंत मंहगे और रंगीन विज्ञापन भी आधुनिक प्रौद्योगिकी के वे उत्पाद हैं जो अनावश्यक इच्छाएं पैदा करते हैं।

आधुनिक प्रौद्योगिकी का सुपरस्टार : इडियट बॉक्स !!

आधुनिक प्रौद्योगिकी का सुपरस्टार है टी वी (पेज थ्री नंबर दॊ पर है), जो अपने रंगीन माध्यम से अनंत, अनावश्यक तथा बलवती इच्छाएं पैदा कर रहा है। अब आदमी कोल्हू के बैल की तरह आंखों पर पट्टी बांधे चक्कर लगा रहा है, चिंता यह है कि आदमी दूसरों का शोषण करने में तथा अपना भी शोषण करवाने में मस्त है। वास्तव में टीवी ने मधुर चालाकी से मनुष्य का सोचना ही बन्द कर दिया है। उसे वह वर्चुअल रियलटी या सत्याभासी या कहें नकली जीवन की सैक्सी, हिंस्र तथा अन्य उत्तेजक घटनाओं में उलझाकर या या कहें मस्त रखता है जिनमें मनन करने योग्य घटनाएं ही नहीं होतीं। टीवी मनुष्य के समय पर कब्जा कर रहा है जिसके उसके ज्ञान के दरवाजे बन्द होते जा रहे हैं।


अब मनुष्य तथा पशुओं में कितनी भिन्नता रह गई है ? प्रकृति ने हमारी नेत्र इंद्रिय को तथा यौन प्रवृति को सर्वाधिक महत्वपूर्ण बनाया, किज्न्तु हमें सोचने विचारने के लिये अद्भुत मस्तिष्क भी दिया ताकि हम अपने विवेक का उपयोग कर मानवता बचा कर रखें। दृष्टिक तथा यौन संबन्धी घटनाएं हमारे मन पर सहज ही हावी हो सकती है। कान यद्यपि दूसरे क्रम पर है किन्तु संगीत मन पर जल्दी कब्जा कर सकता है। इसीलिये नाचगाने वाले, सैक्सी मुद्राओं वाले कार्यक्रम सर्वाधिक लोकप्रिय होते है; उनकी उत्कृष्टता समाज की निम्नतम ग्राह्यता पर निर्भर करती है। साथ ही यह माध्यम हमारे मस्तिष्क को 'भ्रष्टकर' हमारी ग्राह्यता का स्तर गिराते रहते हैं। रंगीन माध्यम ने घर या दफतर के सामान्य कार्यों को बोर करने वाला स्थापित घोषित कर दिया है, और टीवी को मनोरंजन का सर्वोतम साधन स्थापित कर दिया है। अब हम बिचारों के पास दफतर से, बिना कारण बोर होकर, लौटने के बाद क्या विकल्प बचता है सिवाय इसके कि उत्साहपूर्वक उस इडियट बॉक्स के सामने निष्क्रिय होकर बैठ जाएं और उन उत्तेजक, नकली तथा घटिया कार्यक्रमों को देखे, और बोर होते हुए भी अपने 'धुले' मस्तिष्क के आधार पर मस्त रहें। टीवी हमें, विशेषकर बच्चों को, यथार्थ से काटकर सत्याभासी लोक में ले जाता है। ऐसे जीवन मे हम बीमारियों को पाल रहे हैं, अपने मस्तिष्क को कुन्द बना रहे हैं, और अपनी संतान को कुसंस्कृति दे रहे हैं। अल्फैड नॉर्थ व्हाइटहैड ने कहा था कि भाषा और मानसिकता का अन्योन्याश्रित संबन्ध है, आज टीवी की भाषा मुख्य हो गई है, इसीलिये वैसी ही नकली मानसिकता भी। यहां यह कहना भी उचित होगा कि अंग्रेज़ी भाषा द्वारा प्रदत्त मानसिकता का हमारे इस भोगवादी प्रौद्योगिकी में फ़ँसने का महत्वपूर्ण हाथ है। क्योंकि हमारी आर्थिक नीतियां यही अंग्रेज़ी में निष्णात जन ही‌ करते हैं।


खर्चीले टीवी माध्यम की प्रकृति:

टीवी के विषय में भी यही तर्क दिया जा सकता है कि इसमें टीवी या प्रौद्योगिकी का दोष बहुत कम मनुष्य की भोगवादी प्रवृति का दोष ही अधिक है। यह विचारणीय है। कंचन गुप्ता8 एक व्याख्यान में कहते हैं, ‘ बहुल समाचार चैनलों में प्रतियोगिता के रहते अधिकतम दर्शकों की आंख पर कब्जा करने के लिये इलैक्ट्रानिक माध्यम अपना संतुलन और उतरदायित्व खो रहा है।’ 'जनमत' के उमेश उपाध्याय9 स्वीकार करते हैं कि ‘अधिकांश टीवी चैनल निजी उद्योग के हाथ में हैं जिनका प्रमुख ध्येय लाभ कमाना है।’ टीवी माध्यम अत्यंत खर्चीला है अतएव उस पर लाभ कमाने के लिये उसमें मनोरंजन का अधिक होना आवश्यक है, और लाभ लाभकेन्द्रित खुले बाजार में माध्यम के तहत उन मनोरंजनों और विज्ञापनों का सैक्सी, हिंस्र तथा कोरी संवेदनाओं से भरा होते जाना भी अनिवार्य है। खर्चीले टीवी माध्यम की मजबूरी या प्रकृति इस तरह मनुष्य को सोचने से विमुख करती है जो हमें पशुत्व (राक्षसत्व) की ओर ले जा रही है। टीवी तथा पेज थ्री की समर्थक प्रौद्योगिकी केवल असामाजिक कार्यक्रमों के कारण ही त्याज्य नहीं है, वरन वह मूलरूप से ही हानिकारक हो जाती है, अमानवीय हो जाती है क्योंकि वह हमारी जीवन दृष्टि को भोगवादी‌ बनाती है। अतः हमें कम से कम इसकी‌ गुलामी से बचना चाहिये। यह तभी हो सकता है कि जब उसका आधार भारतीय संस्कृति -त्यागमय भोग- हो। इसके लिये हमें टीवी से समय बचाकर, तथा 'सैकुलरिज़म' को सम्मान देते हुए अपनी संस्कृति का ज्ञान प्राप्त करना अवश्यक है।


सॉफ़्टवेयर के द्वारा भाषा तथा प्रतीकों पर कब्जा:

इंटरनेट अपने आप में, हमें लग सकता है कि, नैतिक रूप से तटस्थ प्रौद्योगिकी है। देखें कि किस तरह आज की सॉफ़्टवेयर प्रौद्योगिकी पदार्थों पर प्रक्रिया द्वारा नियंत्रण करने के साथ सॉफटवेयर10 के द्वारा भाषा तथा प्रतीकों पर भी कब्जा कर रही है। अंकीय विश्व में प्रौद्योगिकीय चेतना और सांस्कृतिक चेतना एक साथ उभरती है। प्रौद्योगिकी हमारी चेतना पर ही न कब्जा कर ले अतएव हमें बहुत विवेकशील तथा सावधान रहने की आवश्यकता है। यह खतरा काल्पनिक नहीं सच्चा है; नहीं तो माता पिता के विरोध11 करते हुए भी किशोर आज औसतन 4 या 5 घंटे प्रतिदिन टीवी तथा कम्प्युटर पर क्यों लगाते हैं? वे अधिकांश समय इंटरनेट, पॉप म्यूजिक, वीडियो गेम्स, फिल्म्स, पोर्नोसाइट आदि पर लगाते हैं। वीडियोगेम्स में भी हिंसा हावी रहती है और पॉप म्यूजिक में यौन, और पोर्नो साइट तो बच्चों को बरबाद ही कर सकती है। अब तो प्रौद्योगिकी और जीवन का ही यौगिक संयोग हो रहा है। कल तो यह कहना कठिन होगा कि कहां मानव है और कहां प्रौद्योगिकी।


आधुनिक प्रौद्योगिकी के दुष्परिणाम:

प्रौद्योगिकी द्वारा ही टीवी तथा पेज थ्री पर फैशन मॉडलों, पॉप आर्टिस्टों, फिल्मी एक्टरों आदि तथाकथित सैलिब्रिटी को बढ़ाया जाता है। इन सभी का भोगवाद के अर्थात अनावश्यक भोग की वस्तुओं के 'सैक्सी' विज्ञापन के लिये उपयोग किया जाता है। ऐसे में प्रौद्योगिकी जीवन पर हावी होती है, हमारी सोच को भ्रष्ट करती है। प्रौद्योगिकी तेजी से बदल रही है और बदली भी जा रही है। इसके फलस्वरूप नित नए उत्पाद आने के कारण समाज में अस्थिरता बनी रहती है, विचार तेजी से पुराने होते जाते हैं। नई संतति को पुरानी से कतराना सिखलाया जा रहा है, वह उपयोगी परम्पराओं से भी कटती जाती है। और इस तरह हजारों वर्षों की विवेकपूर्ण सांस्कृतिक विरासत, सीखे गये व्यवहार और सिद्धान्तों का उपयोग नहीं हो पाता जोकि मानव को पशुता के निकट ले जाते हैं। इसमें क्या आश्चर्य कि आज समाज अपनी अनव्याही तथा एकल माताओं जैसी समस्याओं को हल करने में अक्षम पाता है, ऐसे अनेक उदाहरण हैं। आज के बढ़ते हुए अमानवीय अपराध इस निष्कर्ष की पुष्टि करते हैं। आधुनिक प्रौद्योगिकी के दुष्परिणाम भोगवाद की मदद से ही पैदा हुए है। यदि हमारी दृष्टि भोगवादी नहीं होगी तब हम अमानवीय प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण रख सकेंगे। यदि हम भोगवाद नहीं चाहते तब हमें अपनी भाषाओं में ज्ञान और विज्ञान की शिक्षा लेना चाहिये।


क्या आधुनिक प्रौद्योगिकी तर्कसंगत है ?

आधुनिक प्रौद्योगिकी के उत्पादन की विशेषता है कि वस्तु का उत्पादन तो सस्ता होता है किन्तु रखरखाव मंहगा। यह प्रौ. ‘पुरानी फेको, नई खरीदो’ व्यवहार को बढ़ावा देती है जो कि पृथ्वी के सीमित संसाधनों, उर्जा खपत तथा गरीबों के व्यवसाय के लिये हानिकारक है और रचनात्मक संस्कृति के स्थान पर मशीनी संस्कृति को बढ़ावा देती है, इसमें मानव का भी एक वस्तु की तरह शोषण किया जाता है। आधुनिक प्रौद्योगिकी तर्कसंगत होने का दावा करती है, किन्तु जैसा कि देखा वह कुतर्क द्वारा अनावश्यकता को आवश्यक सिद्ध करती है, और इस तरह अपनी उपयोगिता की सहृदयता पर ही संदेह डालती है।


अभी तक टीवी तंत्र से जुड़े नियामक लोग कहते रहे हैं कि टी वी से नुकसान नहीं होता। किन्तु आधुनिक गवेषणा ने सिद्ध कर दिया है कि बच्चों के कोमल मन पर टीवी में प्रदर्शित हिंसा तथा यौन कार्यक्रमों का सीधा प्रभाव पड़ता है। आस्ट्रेलिया में हुई ८८०० व्यक्तियों पर की गई ताजी‌ गवेषणा (डाउन टु अर्थ १. फ़रवरी १०) से यह निष्कर्ष निकले हैं कि प्रत्येक घंटे टीवी दर्शन के फ़लस्वरूप () कैन्सर का संकट ९ % बढ़ा; () सभी कारणों से मृत्यु की दर ११ % बढ़ी; () हृदय रोग के खतरे १८% बढ़े; () ४ घण्टों से अधिक टीवी देखने वालों को हृदय रोग के खतरे ८०% बढ़े, चाहे वे सिगरैट पीते हों‌ या न पीते हों या पौष्टिक भोजन न करते हों!! अर्थात इतने अधिक टीवी दर्शन का खतरा इन अन्य कारणों से सबसे अधिक प्रभावी है। भोगवादी देश की गवेषणा में शरीर पर ही ध्यान दिया गया, इसमें क्या आश्चर्य! अब तो भोगवादियों को भी वैज्ञानिकों के अनुसंधान के निष्कर्षों पर ध्यान देना ही होगा क्योंकि शरीर तो उनके भोगों का अनन्यतम साधन है।


मानव प्रौद्योगिकी के मकड़जाल में ही लटक रहा:

प्रौद्योगिकी पहले तो पदार्थों पर कारीगरी दिखलाती थी, अब सॉफ़्टवेअर के जमाने में भाषा और प्रतीकों पर भी अधिकार जमा रही है और हमें विचारहीनता की ओर ढ़केल रही है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के लाभ भी बहुत है और हानि भी; उसके लाभ तात्कालिक और प्रत्यक्ष हैं, जबकि हानि देर से पता चलती है और अप्रत्यक्ष होती है। इसीलिये मानव जाति दुविधा में है। क्या हममें अब उसपर, निष्पक्ष विचार करने की सामर्थ्य बची है ? क्या हम आधुनिक प्रौद्योगिकी के सामने असहाय हैं? क्या मानव अपने बनाए हुए प्रौद्योगिकी के मकड़जाल में ही लटक रहा है ? आर्थिक प्रगति करने के लिये क्या हम ऐसी प्रौद्योगिकी पालना चाहेंगे जिससे समाज में दुख बढ़ते रहें, और यह देश अपना सुख जूतों की, कपड़ों की,मशीनों की खपत से नापता रहे। निश्चत ही हमें अपना विवेक बचाना है और प्रौद्योगिकी के गुलाम न बनकर उसके साथ समंजन करना है। प्रौद्योगिकी बहुत उपयोगी सेविका है किन्तु बहुत ही दुष्ट स्वामी है।


आधुनिक प्रगति पर नियंत्रण से प्रौद्योगिकी के मकड़जाल से मुक्ति:

खर्चीली प्रकृति के कारण टीवी के कुछ ही कार्यक्रम उच्च्कोटि के हो पाते हैं, और उनके दर्शक, मस्तिष्क के धुलने के कारण, संख्या में कम। इस दुश्चक्र के लिये प्रौद्योगिकी अधिक जिम्मेदार हैं। प्रौद्योगिक संस्कृति का कर्तव्य है कि वह प्रौद्योगिक उत्पादन की दक्षता, गुणवता और उपादेयता को यथा संभव उंची बनाकर रखे। साथ ही प्रौद्योगिक समाज में वैज्ञानिक समझ, कर्तव्य निष्ठा और अपने कार्य में दक्षता का होना आवश्यक है। जब प्रौद्योगिक संस्कृति समाजिक संस्कृति का स्थान ग्रहण करती है, तब बहुत बड़ा खतरा पैदा करती है। उदात्त संस्कृति हमें मानवीय जीवन जीना सिखलाती है, हमारी संवेदनशीलता का संस्कार करती है और मानव बनाती है। तकनीकी या प्रौद्योगिकी का कार्य जीवन के भौतिक क्षेत्रों में सहायता करना है, न कि जीवन की दिशा निर्धारित करना। विशेषकर भारतीय संस्कृति ने, जिसमें सत्य और अहिंसा के साथ सहदयता, उदारता, सहिष्णुता और प्रेम जैसे उदात्त जीवन मूल्य हैं, भोगवाद का विरोध कर, त्यागपूर्वक भोग का ही मार्ग दर्शाया है। ऐसी भारतीय संस्कृति में वह जीवन दर्शन है जो हमें टीवी तथा प्रौद्योगिकी का गुलाम न बनते हुए, उनके साथ मानव बनकर रहने की शक्ति दे सकता है और आधुनिकता के साथ भोगवादी प्रौद्योगिकी के मकड़जाल से मुक्तकर हमें समृद्धि एवं प्रगति करते हुए सच्चे सुखी जीवन जीने की प्रेरणा दे सकता है। प्रौद्योगिक संस्कृति को अपना आधार भारतीय संस्कृति पर बनाना चाहिये।

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1The Trials and Tribulations of Being a Single or a teen Parent ( Google)

2BBC News (Internet) - Primary Pu8pils need 'sex lessons'; Week of 6th Nov 06.

3BBC News (Internet) - 17th Nov 06

4अंग्रेज़ी भाषा में विज्ञान की शिक्षा - वि मो ति - अक्टोबर ०५, 'राष्ट्र भाषा', वर्धा

5Age Concern in England, House Journal of OWN, Web site.

6Rape abuse & incest National Nework Google

7Same as 1 and 2 above

8Electronic Media losing sense of balance – Pioneer 16 Nov. 06

9ibid

10शिक्षा का माध्यम . . . जून ०६ 'राष्ट्रभाषा'

11India Today – Wired Generation, 20 Nov 06